आधुनिक भारत का इतिहास भाग -7 (गवर्नर, गवर्नर जनरल तथा वायसराय-भाग 1)

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 Governor, Governor General and Viceroy

Chapter 1 1ipqct3 283x300गवर्नर, गवर्नर जनरल तथा वायसराय

बंगाल के गवर्नर

लार्ड क्लाइव (1757 . से 1760 .)

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  • लार्ड क्लाइव को भारत मेँ अंग्रेजी शासन का संस्थापक माना जाता है।
  • ईस्ट इंडिया कंपनी ने क्लाइव को 1757 में बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया। क्लाइव ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत मेँ नियुक्त होने वाला प्रथम गवर्नर था।
  • भारत मेँ अंग्रेजी शासन की स्थापना मेँ निर्णायक माने जाने वाला 1757 का प्लासी का युद्ध क्लाइव के नेतृत्व में लड़ा गया।
  • बंगाल के गवर्नर के रुप मेँ अपने दूसरे कार्यकाल मेँ बरार के युद्ध के बाद क्लाइव ने मुग़ल सम्राट शाह आलम द्वितीय से इलाहाबाद की संधि की।
  • 1764 मेँ ऐतिहासिक बक्सर युद्ध के समय वन्सिटार्ट (1760 – 1765)  बंगाल का गवर्नर था।
  • इलाहाबाद की संधि के बाद क्लाइव ने बंगाल मेँ द्वैध शासन की नींव रखी।
  • द्वैध शासन के दौरान क्लाइव ने वेरेल्स्ट (1767 – 171769) और कर्टियर (1769 – 1772)  बंगाल के गवर्नर रहे।
  • द्वैध शासन के दौरान कंपनी के अधिकारियो मेँ व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने के लिए क्लाइव ने सोसाइटी ऑफ ट्रेड की स्थापना की।

रॉबर्ट क्लाइव  :मुख्य परीक्षा के सन्दर्भ में 

रॉबर्ट क्लाइव रॉबर्ट क्लाइव ब्रिटिश सेना में एक सैनिक के पद पर तैनात हुआ था, किन्तु अपनी सूझबूझ, समझदारी और बुद्धि से उसने एक बहुत ऊँचा पद प्राप्त कर लिया था। रॉबर्ट क्लाइव का जन्म 29 सितम्बर, 1725 ई. में हुआ था। क्लाइव ने भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को मुख्य रूप से मज़बूती प्रदान की थी। क्लाइव ने ही अपनी उच्च महत्त्वाकांक्षाओं और कूटनीति से सम्पूर्ण भारत को अंग्रेज़ों का ग़ुलाम बनाने में मुख्य भूमिका निभाई थी। पहले प्लासी का युद्ध और फिर बक्सर आदि के कई युद्धों को जीतकर क्लाइव ने भारत में ब्रिटिश सत्ता को मज़बूती प्रदान कर दी थी। भारत में मुग़लों का वर्चस्व समाप्त करने में भी क्लाइव का बड़ा योगदान था। हिन्दुस्तान से क्लाइव 1767 ई. में इंग्लैण्ड वापस चला गया, जहाँ 1774 ई. में उसने आत्महत्या कर ली।

भारत में रॉबर्ट क्लाइव का आगमन

रॉबर्ट क्लाइव कम्पनी के एक ‘क्लर्क’ (लिपिक) के रूप में भारत आया था। उसे मुख्य रूप से गवर्नर को पत्र आदि लिखने के कार्य के लिये रखा गया था। वह सदैव अपने साथ तलवार, बन्दूक़ और एक घोड़ा रखता था। क्लाइव को आवश्यकता के अनुसार सैनिकों को कहीं पर भी भेजने और युद्ध लड़ने के अधिकार भी प्राप्त थे। पहली बार वह 1757-1760 ई. और फिर दूसरी बार 1765-1767 ई. तक वह बंगाल का गवर्नर रहा था।

ब्रिटिश साम्राज्य की मजबूती में रॉबर्ट क्लाइव का योगदान

भारत में अपने कार्यकाल के दौरान रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में अंग्रेज़ों की स्थिति में सुधार किया और ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूती प्रदान की। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और मुग़ल सम्राट शाहआलम द्वितीय, इन तीनों को ही क्लाइव की सूझबूझ, चालाकी और कूटनीति ने परास्त कर दिया था। 23 जून, 1757 ई. को प्लासी का युद्ध और 1764 ई. में बक्सर का युद्ध जीतकर क्लाइव ने बंगाल में ब्रिटिश हुकूमत के विरोध को पूर्णतया समाप्त कर दिया था। 1757 से 1760 ईं. तक बंगाल का गर्वनर रहने के बाद क्लाइव 1760 ई. में इंग्लैंड लौट गया। उसके पश्चात् बंगाल का स्थानापन्न गर्वनर ‘होलवेल’ बना। तत्पश्चात् ‘वेन्सिटार्ट’ बंगाल का गर्वनर बना। बक्सर की विजय के उपरान्त क्लाइव को पुनः भारत में अंग्रेज़ी प्रदेशों का मुख्य सेनापति तथा गर्वनर बनाकर भेजा गया था। 10 अप्रैल, 1765 को क्लाइव ने दूसरी बार मद्रास की धरती पर पैर रखा था और 3 मई, 1765 को कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में कार्यभार ग्रहण किया

रॉबर्ट क्लाइव का दूसरा कार्यकाल : (1765-1767 ई.) : भूमिका 

बक्सर की विजय के उपरान्त क्लाइव को पुनः भारत में अंग्रेज़ी प्रदेशों का मुख्य सेनापति तथा गर्वनर बनाकर भेजा गया। 10 अप्रैल, 1765 को क्लाइव ने दूसरी बार मद्रास की धरती पर पैर रखा और 3 मई, 1765 को कलकत्ता में कार्यभार ग्रहण किया। क्लाइव ने 12 अगस्त, 1765 को मुग़ल सम्राट शाहआलम से इलाहाबाद में एक संधि की, जिसकी शर्तों के अनुसार कम्पनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हुई। सम्राट शाहआलम के लिए इलाहाबाद तथा कड़ा के ज़िले एवं कम्पनी द्वारा प्रति वर्ष 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देने की व्यवस्था की गई। कम्पनी ने अवध के नवाब से कड़ा और मनिकपुर छीनकर मुग़ल बादशाह को दे दिया। इसे ‘इलाहाबाद की पहली संधि’ के नाम से जाना जाता है। रॉबर्ट क्लाइव ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ 16 अगस्त, 1765 को एक दूसरी संधि की जिसे ‘इलाहाबाद की दूसरी संधि’ के रूप में जाना जाता है। संधि की शर्तों के अनुसार नवाब ने इलाहाबाद व कड़ा के ज़िले शाहआलम को देने का वायदा किया और युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए उसने कम्पनी को 50 लाख रुपये भी देने का वायदा किया। इन दोनों संधियों के सम्पन्न हो जाने पर कम्पनी की स्थिति अत्यन्त ही मजबूत हो गई।

द्वैध शासन पद्धति एवं रॉबर्ट क्लाइव

द्वैध शासन पद्धति को रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल में दोहरी सरकार क़ायम की, जिसमें ‘दीवानी’ अर्थात् ‘भू-राजस्व वसूलने की शक्ति कम्पनी के पास थीं’, पर प्रशासन का भार नवाब के कन्धों पर था। क्लाइव के इस प्रशासनिक व्यवस्था की विशेषता उत्तरदायित्वरहित अधिकार और अधिकार रहित उत्तरदायित्व थी। इस तरह दीवानी और निजामत, जिसमें दीवानी के अन्तर्गत राजस्व वसूल करने का अधिकार तथा निजामत के अन्तर्गत सैनिक संरक्षण तथा विदेशी मामलों के अधिकार शामिल थे, पूर्ण रूप से कम्पनी के हाथों में आ गये। द्वैध शासन की व्यवस्था के आधार पर कम्पनी द्वारा वसूले गये राजस्व में से 26 लाख रुपये प्रतिवर्ष सम्राट को तथा 53 लाख रुपये बंगाल के नवाब को शासन के कार्यों के संचालन के लिए दिया जाना था, शेष बचे हुए भाग को वह अपने पास रखने के लिए स्वतन्त्र थी। इस प्रकार कम्पनी ने राजस्व वसूलने का अधिकार तथा नवाब ने शासन चलाने की जिम्मेदारी ग्रहण की। क्लाइव ने मुहम्मद रजा ख़ाँ को बंगाल का तथा राजा शिताब राय को बिहार का दीवान बनाया। कार्नवालिस का विचार शीघ्र ही द्वैध शासन प्रणाली का दुष्परिणाम देखने को मिला। देश में क़ानून-व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई और न्याय मात्र बीते समय की बात होकर रह गया।

इस संदर्भ में लॉर्ड कार्नवालिस ने ‘हाउस ऑफ़ कामन्स’ में कहा कि, मैं निश्चिय पूर्वक कह सकता हूँ कि, 1765-1784 ई. तक ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार से अधिक भ्रष्ट, झूठी तथा बुरी सरकार संसार के किसी भी सभ्य देश में नहीं थी।” द्वैध शासन से कृषि व्यवस्था पर प्रभाव पड़ा, राजस्व वसूली सर्वोच्च बोली बोलने वालों को दी जाने लगी और ऊपर से 1770 ई. में बंगाल के अकाल ने तो कृषकों की जैसे कमर ही तोड़ दी।

इलाहाबाद की सन्धियाँ : रॉबर्ट क्लाइव की भूमिका 

इलाहाबाद की पहली सन्धि -(12 अगस्त 1765)

ने 12 अगस्त, 1765 को मुग़ल सम्राट शाहआलम द्वितीय से इलाहाबाद में एक सन्धि की, जिसकी शर्तों के अनुसार- कम्पनी को बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी प्राप्त हुई। सम्राट शाहआलम के लिए इलाहाबाद तथा कड़ा के ज़िले एवं कम्पनी द्वारा प्रति वर्ष 26 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देने की व्यवस्था की गई। कम्पनी ने अवध के नवाब से कड़ा और मनिकपुर छीनकर मुग़ल बादशाह को दे दिया। 

इलाहाबाद की दूसरी सन्धि-(16 अगस्त 1765)

क्लाइव ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ 16 अगस्त, 1765 को एक सन्धि की। सन्धि की शर्तों के अनुसार- नवाब ने इलाहाबाद व कड़ा के ज़िले शाहआलम द्वितीय को देने का वायदा किया और युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिए उसने कम्पनी को 50 लाख रुपये भी देने का वायदा किया। इन दोनों सन्धियों के सम्पन्न हो जाने पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थिति अत्यन्त ही मज़बूत हो गई।

श्वेत विद्रोह और रॉबर्ट क्लाइव

द्वैध शासन का व्यापार तथा व्यवसाय पर भी ग़लत असर पड़ा। भारतीय व्यापारियों के शोषण की गति तीव्र हो गई। बंगाल के वस्त्र तथा रेशम उद्योग इसमें काफ़ी प्रभावित हुए। द्वैध व्यवस्था मात्र ब्रिटिश हित को सर्वोपरि रखती थी। क्लाइव द्वारा निजी व्यापार तथा उपहार लेने पर रोक लगाने से भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला तथा इसने आन्तरिक कर संग्रह को अनिवार्य बना दिया। क्लाइव ने कम्पनी के सैनिकों के दोहरे भत्ते, जो शांति काल में मिलते थे, पर रोक लगा दी। यह सुविधा केवल बंगाल के सैनिकों को दी जाने लगी, जो बंगाल एवं बिहार की सीमा से बाहर कार्य करते थे। मुंगेर तथा इलाहाबाद में कार्यरत श्वेत सैनिक अधिकारियों ने इस व्यवस्था का विरोध किया, जिसे कालान्तर में श्वेत विद्रोह के नाम से जाना गया। क्लाइव इस विद्रोह को सफलता से दबाने में सफल हुआ।

द्वैध शासन की समाप्ति का कारण 

द्वैध प्रणाली के अन्तर्गत कृषि को काफ़ी नुकसान हुआ। भूमि कर कृषकों पर बहुत अधिक होता था। भूमि कर संग्रह करने का भार प्रतिवर्ष अधिकाधिक बोली लगाने वाले को सौंप दिया जाता था, जिसकी भूमि में स्थायी रूप से कोई रुचि नहीं थी। सबसे दुःखद घटना थी- 1770 ई. का बंगाल का भंयकर अकाल, जिसमें अत्यधिक जान-माल की क्षति हुई। अकाल के दिनों में भूमिकर दृढ़तापूर्वक वसूल किया गया। कम्पनी के कार्यकर्ताओं ने लोगों की आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतों को बढ़ाकर लाभ कमाया। ब्रिटिश राज्य के संस्थापक के रूप में रॉबर्ट क्लाइव के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। उसने कम्पनी के कार्यकर्ताओं के लिए ‘सोसायटी ऑफ़ ट्रेड’ का निर्माण किया, जिसको नमक, सुपारी एवं तम्बाकू के व्यापार का एकाधिकार प्राप्त था। यह निकाय उत्पादकों के समस्त माल नक़द में लेकर निश्चित केन्द्रों पर फुटकर व्यापारियों को बेच देता था। फ़रवरी, 1767 ई. में क्लाइव इंग्लैण्ड वापस चला गया। क्लाइव का उत्तराधिकारी ‘वेरेल्स्ट’ (1767-1769 ई.) हुआ, और वेरेल्स्ट का उत्तराधिकारी ‘कर्टियर’ (1769-72 ई.)। इनके कमज़ोर शासन में क्लाइव की दोहरी सरकार के दुर्गुण पूर्णरूपेण स्पष्ट हो गये। राज्य अत्याचार, भ्रष्टाचार और कष्ट के बोझ से कराहने लगा। अतः 1772 ई. में नियुक्त अगले गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने द्वैध शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया।

के. एम. पणीक्कर का कहना था कि “1765 से 1772 ई. तक कम्पनी ने बंगाल में डाकुओं का राज्य स्थापित कर दिया। बंगाल को अविवेक रूप से लूटा”।

बंगाल के गवर्नर जनरल

वारेन हैस्टिंग्स (1772 – 1785 ई.)

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  • 1772 में कर्टियर के बाद वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर बनाया गया। इसने बंगाल मेँ चल रहै द्वैध शासन को समाप्तकर बंगाल का शासन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के अधीन कर लिया।
  • 1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा वारेन हैस्टिंग्स बंगाल का प्रथम गवर्नर जनरल बनाया गया।
  • वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल की राजधानी को कोलकाता लाकर भारत मेँ अंग्रेजी साम्राज्य की राजधानी घोषित किया।
  • वारेन हेस्टिंग्स ने 1776 मेँ कानून संबंधी एक संहिता का निर्माण करवाया जिसे कोड ऑफ जेंटू कहा जाता है।
  • इसके समय में बंगाल के एक समृद्ध ब्राह्मण, नंद कुमार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर अभियोग चलाया गया।
  • प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध वारेन हेस्टिंग्स के शासन काल मेँ हुआ था।
  • इसके समय मेँ द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध (1780 1784) हुआ।
  • वारेन हैस्टिंग्स के कार्यकाल मेँ पिट्स इंडिया एक्ट पारित हुआ, जिसके द्वारा बोर्ड ऑफ कंट्रोल की स्थापना हुई।
  • वारेन हैस्टिंग्स के 1785 ई. मेँ वापस इंग्लैण्ड जाने के बाद मैक्फर्सन फरवरी 1785 से सितंबर 1786 ई. तक बंगाल का गवर्नर रहा।

वारेन हेस्टिंग्स -( 1772 से 1785 ई) : मुख्य परीक्षा के सन्दर्भ में 

वारेन हेस्टिंग्स वारेन हेस्टिंग्स 1772 से 1785 ई. तक गवर्नर-जनरल के पद पर रहा था। 1750 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एक ‘क्लर्क’ (लिपिक) के रूप में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) पहुँचा और कार्यकुशलता के कारण शीघ्र ही वह कासिम बाज़ार का अध्यक्ष बन गया। 1772 ई. में इसे बंगाल का गर्वनर बनाया गया था। 1773 ई. के ‘रेग्युलेटिंग एक्ट’ के द्वारा उसे 1774 ई. में बंगाल का गर्वनर-जनरल नियुक्त किया गया। अपने प्रशासनिक सुधार के अन्तर्गत वारेन हेस्टिंग्स ने सर्वप्रथम 1772 ई. में ‘कोर्ट ऑफ़ डाइरेक्टर्स’ के आदेशानुसार बंगाल से ‘द्वैध शासन प्रणाली’ की समाप्ति की घोषणा की, और सरकारी ख़ज़ाने का स्थानान्तरण मुर्शिदाबाद से कलकत्ता किया। हेस्टिंग्स का विचार था कि, समस्त भूमि शासक की है। राजस्व सुधारों को व्यवस्थित करने के लिए उसने परीक्षण तथा अशुद्धि के नियम को अपनाया।

वारेन हेस्टिंग्स एवं राजस्व सुधार नीति

‘राजस्व सुधार’ के अन्तर्गत वारेन हेस्टिंग्स ने राजस्व की वसूली का अधिकार कम्पनी के अधीन कर दिया और राजस्व वसूली में सहायता देने वाले दो भारतीय उप-दीवानों मुहम्मद रजा ख़ाँ तथा राजा शिताब राय को पदच्युत कर दिया। हेस्टिंग्स ने ‘बोर्ड ऑफ़ रेवेन्यू’ की स्थाना की, जिसमें कम्पनी के राजस्व संग्राहक नियुक्त किये गये। भूमि कर सुधार के अन्तर्गत 1772 ई. तक संग्रहण के अधिकार ऊँची बोली बोलने वाले ज़मीदारों को 5 वर्ष के लिए दिये गये और उन्हें भू-स्वामित्व से मुक्त कर दिया गया। 1773 ई. में कर व्यवस्था में परिवर्तन करते हुए भ्रष्ट कलेक्टरों को पदमुक्त कर भारतीय दीवानों की नियुक्त की गई। इस पंचवर्षीय भू-राजस्व व्यवस्था से कृषकों को काफ़ी हानि हुई। अतः पाँच साला ठेके पर भू-राजस्व वसूलने की व्यवस्था समाप्त कर दी गई, और इसके स्थान पर एक वर्षिय व्यवस्था को पुनः लागू किया गया। राजस्व वसूली के अधिकार नीलाम कर दिये गये, साथ ही ज़मीदारों पर अब पहले से अधिक विश्वास किया गया। 1781 ई. में परिवर्तन के अन्तर्गत प्रान्तीय परिषद समाप्त कर दी गई, कलेक्टरों को पुनः ज़िले में नियुक्त किया गया और उन्हें ही कर को निर्धारित करने का अधिकार फिर से प्राप्त हो गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि, अपनी अति केन्द्रीयकरण नीति के कारण वारेन हेस्टिंग्स एक निश्चित कर-व्यवस्था के निर्धारण में पूर्णतया असफल सिद्ध हुआ।

1789 में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को कहना पड़ा था कि, “कम्पनी के अधीन प्रदेश का तीसरा भाग केवल उजाड़ है तथा वहाँ जंगली पशु ही बसते हैं”।

वारेन हेस्टिंग्स एवं न्याय व्यवस्था सुधार 

वारेन हेस्टिंग्स ने अपने कार्यकाल के दौरान ‘न्याय सुधारों’ के अन्तर्गत ज़मीदारों से न्यायिक अधिकार छीन लिया। इसकी न्याय व्यवथा मुग़ल प्रणाली पर आधारित थी। 1772 ई. में उसने प्रत्येक ज़िले में एक फ़ौजदारी तथा दीवानी अदालतों की स्थापना की। दीवानी न्यायलय कलेक्टरों के अधीन थे, जहाँ पर 500 रु. के मामलों का निपटारा किया जाता था। 500 रुपये से ऊपर के मुकदमों की सुनवायी ‘सदर दीवानी अदालत’ करती थीं, जिसमें एक अध्यक्ष तथा दो अतिरिक्त सदस्य होते थे। हिन्दुओं के मामलों का निपटारा हिन्दू विधि से तथा मुसलमानों का मुस्लिम विधि से किया जाता था। न्यायाधीश को उपहार एवं शुल्क लेने पर मनाही थी।

वारेन हेस्टिंग्स एवं शैक्षिक सुधार

सामाजिक सुधारों के अन्तर्गत हेस्टिंग्स ने 1781 ई. में कलकत्ता में मुस्लिम शिक्षा के विकास के लिए एक मदरसा स्थापित किया। ‘गीता’ के अंग्रेज़ी अनुवादक ‘चार्ल्स विलिकिन्स’ को हेस्टिंग्स ने आश्रय प्रदान किया। ‘सर विलियम जोंस’ द्वारा 1784 ई. (हेस्टिंग्स के समय) में ‘द एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल’ की स्थापना की गई। वारेन हेस्टिंग्स ने हिन्दू तथा मुस्लिम विधियों को भी एक पुस्तक का रूप देने का प्रयत्न किया। 1776 ई. में संस्कृत में एक पुस्तक ‘कोड ऑफ़ जिनेटो लॉ’ प्रकाशित हुई। 1791 ई. में विलियम जोन्स तथा कोलब्रुक की ‘डाइजेस्अ ऑफ़ हिन्दू लॉ’ छपी। इसी प्रकार ‘फ़तवा-ए-आलमगीरी’ का अंग्रेज़ी अनुवाद करने का भी प्रयास किया गया। हेस्टिंग्स अरबी, फ़ारसी जानता था और बांग्ला बोल सकता था।

वारेन हेस्टिंग्स का कार्यकाल एवं क्रमबद्ध युद्ध

व्यावसायिक सुधार के अन्तर्गत वारेन हेस्टिंग्स ने ज़मीदारों के क्षेत्र में कार्य कर रहे शुल्क गृहों को बन्द करवा दिया। अब केवल कलकत्ता, हुगली, मुर्शिदाबाद, ढाका तथा पटना में ही शुल्क गृह रह गये। शुल्क मात्र 2.5 प्रतिशत था, जो सबको देना होता था। वारेन हेस्टिंग्स ने कम्पनी के अधिकारियों को व्यक्तिगत व्यापार पर दी जाने वाली छूट को समाप्त कर दिया। वारेन हेस्टिंग्स ने मुग़ल सम्राट को मिलने वाली 26 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन बन्द करवा दी। उसने अवध से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाये। मुग़ल सम्राट को दिये गये इलाहाबाद तथा कड़ा के ज़िले 50 लाख रु. लेकर अवध के नवाब को दे दिये गये। उसके समय में ‘रुहेला युद्ध’ (1774 ई.), प्रथम मराठा युद्ध (1775-1782 ई.) तथा मैसूर युद्ध द्वितीय (1780-1784 ई.) हुए।

हेस्टिंग्स पर लगाए गए आरोप

वारेन हेस्टिंग्स के समय में रेग्युलेटिंग एक्ट के तहत 1774 ई. में कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई, जिसका अधिकार क्षेत्र कलकत्ता तक था। कलकत्ता में रहने वाले सभी भारतीय तथा अंग्रेज़ इसकी परिधि में थे। कलकत्ता से बाहर के मामले यह तभी सुनता था, जब दोनों पक्ष सहतम हों। इस न्यायालय में न्याय अंग्रेज़ी क़ानूनों द्वारा किया जाता था। एक बंगाली ब्राह्मण ‘नन्द कुमार’ ने 1775 ई. में वारेन हेस्टिंग्स पर यह आरोप लगाया कि, उसने ‘मुन्नी बेगम’ (मीर ज़ाफ़र की विधवा) से 3.5 लाख रुपये नवाब का संरक्षक बनाने के लिए घूस लिया था। आरोप के प्रमाणित न होने पर वारेन हेस्टिंग्स ने उस पर झूठा आरोप लगाकर न्यायालय से उसे फाँसी की सज़ा दिलवायी। गवर्नर-जनरल के रूप में वारेन हेस्टिंग्स की दो कारणों से बुराई हुई- पहला, बनारस के राजा चेतसिंह से बिना वजह अधिक रुपयों की माँग करना, तथा बाद में उसे निश्चित घोड़े देने के लिए बाध्य करना और नया पद पाने पर उसे हटाकर उसके भतीजे को बनारस की नवाबी दे देना एवं दूसरा, अवध के ख़ज़ाने की लूट। पिट एक्ट के विरोध में इस्तीफ़ा देकर जब वारेन हेस्टिग्स फ़रवरी, 1785 ई. में इंग्लैण्ड पहुँचा, तो बर्क द्वारा उसके ऊपर महाभियोग लगाया गया। ब्रिटिश पार्लियामेंट में यह महाभियोग 1788 ई. से 1795 ई. तक चला, परन्तु अन्त में उसे आरोपों से मुक्त कर दिया गया।

लार्ड कार्नवालिस (1786 ई. से 1793 ई.)

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  • कार्नवालिस को भारत मेँ एक निर्माता एवं सुधारक के रुप मेँ याद किया जाता है।
  • कार्नवालिस को सिविल सेवा का जनक कहा जाता है। इसने कलेक्टर के अधिकारोँ को सुनिश्चित किया और उनके वेतन का निर्धारण किया।
  • कार्नवालिस ने भारत मेँ ब्रिटेन से भी पहले पुलिस व्यवस्था की स्थापना की इसलिए इसे पुलिस व्यवस्था का जनक भी कहा जाता है।
  • कॉर्नवालिस ने प्रशासनिक व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिए 1793 मेँ एक नियम बनाया जिसे कार्नवालिस कोड के नाम से भी जाना जाता है। इस कोड के अनुसार कार्नवालिस ने कार्यपालिका एवं नयायपालिका की शक्तियोँ का विभाजन किया।
  • 1790 – 1792 ई. में तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध कार्नवालिस के कार्यकाल मेँ हुआ।
  • 1793 मेँ कार्नवालिस ने बंगाल बिहार और उड़ीसा मेँ स्थाई बंदोबस्त लागू किया।
  • 1895 मेँ कॉर्नवालिस की मृत्यु हो गई गाजीपुर मेँ इसका मकबरा बनाया गया है जिसे लाट साहब का मकबरा कहा जाता है।

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस  (1786 ई. से 1793 ई.) : मुख्य परीक्षा के सन्दर्भ में 

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस 1786 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने एक उच्च वंश एवं कुलीन वृत्ति के व्यक्ति लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को पिट्स इण्डिया एक्ट के अन्तर्गत रेखाकिंत शांति स्थापना तथा शासन के पुनर्गठन हेतु गवर्नर-जनरल नियुक्त करके भारत भेजा। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस दो बार भारत के गवर्नर-जनरल बनाये गये थे। पहली बार वे 1786-1793 ई. तक तथा दूसरी बार 1805 ई. में गवर्नर-जनरल बनाये गये। किन्तु अपने दूसरे कार्यकाल 1805 ई. में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस अधिक समय तक गवर्नर-जनरल नहीं रह सके, क्योंकि कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। कॉर्नवॉलिस ने अपने कार्यों से सुधारों की एक कड़ी स्थापित कर दी थी।

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस के द्वारा किये गए सुधार कार्य

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने अपने शासन काल में निम्नलिखित सुधार किये- क़ानून की विशिष्टता सर्वप्रथम अपने ‘न्यायिक सुधारों’ के अन्तर्गत कॉर्नवॉलिस ने ज़िले की समस्त शक्ति कलेक्टर के हाथों में केन्द्रित कर दी, व 1787 ई. में ज़िले के प्रभारी कलेक्टरों को ‘दीवानी अदालत’ का ‘दीवानी न्यायधीश’ नियुक्त कर दिया। 1790-1792 ई. के मध्य भारतीय न्यायाधीशों से युक्त ज़िला फ़ौजदारी अदालतों को समाप्त कर उसके स्थान पर चार भ्रमण करने वाली अदालतें- तीन बंगाल हेतु व एक बिहार हेतु नियुक्त की गई। इन अदालतों की अध्यक्षता यूरोपीय व्यक्ति द्वारा भारतीय क़ाज़ी व मुफ़्ती के सहयोग से की जाती थी। कॉर्नवॉलिस ने ‘क़ानून की विशिष्टता’ का नियम, जो इससे पूर्व नहीं था, भारत में लागू किया।

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा किये गए क़ानूनी सुधार

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने 1793 ई. में प्रसिद्ध ‘कॉर्नवॉलिस कोड’ का निर्माण करवाया, जो ‘शक्तियों के पृथकीकरण’ सिद्धान्त पर आधारित था। ‘कॉर्नवॉलिस संहिता’ से कलेक्टरों की न्यायिक एवं फ़ौजदारी से सम्बन्धित शक्ति का हनन हो गया और अब उनके पास मात्र ‘कर’ सम्बन्धित शक्तियाँ ही रह गयी थीं। उसने वकालत पेशा को नियमित बनाया। 1790-1793 ई. के मध्य कॉर्नवॉलिस ने फ़ौजदारी क़ानून में कुछ परिवर्तन किये, जिन्हें अंग्रेज़ संसद ने 1797 ई. में एक अधिनियम द्वारा प्रमाणित कर दिया। इन सुधारों के अन्तर्गत हत्या के मामले में हत्यारे की भवना पर अधिक बल दिया गया, न कि हत्या के अस्त्र अथवा ढंग पर। इसी प्रकार मृतक के अभिभावकों की इच्छा से क्षमा करना अथवा ‘रक्त का मूल्य’ निर्धारित करना बन्द कर दिया गया तथा अंग विच्छेदन के स्थान पर कड़ी क़ैद की सज़ा की आज्ञा दी गयी। इसी प्रकार 1793 ई. में यह निश्चित किया गया कि साक्षी के धर्म विशेष के मामले पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा किये गए पुलिस व्यवस्था

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने ‘पुलिस सुधार’ के अन्तर्गत कम्पनी के अधिकारियों के वेतन में वृद्धि की और ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस अधिकार प्राप्त ज़मीदारों को इस अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेज़ मजिस्ट्रेटों को ज़िले की पुलिस का भार दे दिया गया। ज़िलों को 400 वर्ग मील क्षेत्र में विभाजित कर दिया गया। ज़िलों में पुलिस थाना की स्थापना कर एक दरोगा को उसका प्रभारी बनाया गया। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को पुलिस व्यवस्था का जनक भी कहा जाता है।

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा किये गए प्रशासनिक सुधार

प्रशासनिक सुधार के अन्तर्गत कम्पनी के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि की गई और व्यक्तिगत व्यापार पर पाबन्दी लगा दी गई। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने प्रशासनिक व्यवस्था का यूरोपीयकरण किया। भारतीयों के लिए सेना में ‘सूबेदार’, ‘जमादार’, ‘प्रशासनिक सेवा’ में ‘मुंसिफ’, ‘सदर, अमीर’ या ‘डिप्टी कलेक्टर’ से ऊँचे पद नहीं दिये जाते थे।

लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा लागू स्थायी भूमि कर व्यवस्था

बंगाल में भू-राजस्व वसूली का अधिकार किसे दिया जाय, तथा उसे कितने समय तक के लिए दिया जाय, इस पर अन्तिम निर्णय कॉर्नवॉलिसस ने सर जॉन शोर के सहयोग से किया, और अन्तिम रूप से ज़मीदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया। ज्ञातव्य है कि, ‘जेम्स ग्रांट’ ने कॉर्नवॉलिस तथा सर जॉन शोर के विचारों का विरोध करते हुए ज़मीदारों को केवल भूमिकर संग्रहकर्ता ही माना था, तथा समस्त भूमि को ‘सरकन की भूमि’ के रूप में मान्यता दी थी। 1790 ई. में दस वर्ष की व्यवस्था की गई, जिसे ‘जॉन शोर की व्यवस्था’ के नाम से भी जाना जाता था। परन्तु इस व्यवस्था को 1793 ई. में ‘स्थायी बन्दोबस्त’ में परिवर्तित कर दिया गया। ज़मीदरों को अब भू-राजस्व का 8/9 भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी को तथा 1/9 भाग अपनी सेवाओं के लिए अपने पास रखना था। इस व्यवस्था के अनेक दोष सामने आये। यद्यपि कम्पनी ने इसे पूरी तरह अपने हित में बताया, परन्तु शीघ्र ही यह व्यवस्था उत्पीड़न तथा शोषण का साधन बन गई। करों की संख्या 36 से घटाकर 23 कर दी गई। पुरानी राजस्व समिति का नाम ‘राजस्व बोर्ड’ रख दिया गया। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने व्यापार बोर्ड के सदस्यों की संख्या घटाकर 11 से 5 कर दी तथा ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल लेने की व्यवस्था बना दी। कॉर्नवॉलिस को भारत में ‘नागरिक सेवा का जनक’ माना जाता है

सर जॉन शोर (1793 ई. से 1798 ई.)

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  • कार्नवालिस के बाद सर जॉन शोर को बंगाल का गवर्नर जनरल बनाया गया। इसके कार्यकाल मेँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना खुर्दा का युद्ध था, जो 1795 में मराठों व निजाम के बीच।
  • सर जॉन शोर अपनी अहस्तक्षेप की नीति के कारण विख्यात था। इसके कार्यकाल मेँ बंगाल के अंग्रेज अधिकारियोँ के विद्रोह से स्थिति अनियंत्रित हो गई, जिससे 1798 में इसे इंग्लैण्ड वापस बुला लिया गया।

सर जॉन शोर 1793 से 1798 ई. तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे। इनके समय में ब्रिटिश संसद ने 1793 ई. का चार्टर एक्ट पास किया था। सर जॉन शोर के काल में निज़ाम और मराठों के बीच 1795 ई. में ‘खुर्दा का युद्ध’ लड़ा गया। इस समय जॉन शोर ने हस्तक्षेप की नीति का पालन किया था। इन्होंने केवल अवध के मामलें में हस्तक्षेप किया। आसफ़उद्दौला की मुत्यु के बाद अवध में उत्तराधिकार की समस्या शुरू हो गयी थी। आसफ़द्दौला वज़ीर अली को नवाब बनाना चाहता था, किन्तु सर जॉन शोर ने उसकी एक न चलने दी। उन्होंने आसफ़उद्दौला के दूसरे पुत्र ‘सआदत अली’ को नवाब घोषित किया एवं उसके साथ संधि कर ली।

लार्ड वेलेजली (1798 . से 1805 .)

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  • लार्ड वेलेजली ने शांति की नीति का परित्याग कर केवल युद्ध की नीति का अवलंबन किया।
  • लार्ड वेलेजली ने साम्राज्य विस्तार की नीति को अपनाते हुए भारतीय राज्योँ को शासन ब्रिटिश शासन की परिधि मेँ लाने के लिए सहायक संधि प्रणाली का प्रयोग किया।
  • लार्ड वेलेजली, कंपनी को भारत की सबसे बडी शक्ति बनाना चाहता था, उसके प्रदेशो का विस्तार कर भारत के सभी राज्योँ को कंपनी पर निर्भर होने की स्थिति मेँ लाना चाहता था।
  • सहायक संधि पर हस्ताक्षर करने वाले राज्यों में हैदराबाद तथा फिर मैसूर, तंजौर, अवध, जोधपुर, जयपुर, बूंदी, भरतपुर और पेशावर शामिल थे।
  • वेलेजली के कार्यकाल मेँ चौथा आंग्ल मैसूर युद्ध हुआ। इसने इस युद्ध मेँ टीपू सुल्तान को हराने के पश्चात मैसूर पर अधिकार कर लिया।
  • इसने पेशवा के साथ बेसीन की संधि की तथा 1803 – 1805 के दौरान आंग्ल मराठा युद्ध लड़ा।
  • अपनी विस्तार नीति के तहत पंजाब सिंधु को छोडकर लगभग संपूर्ण भारत को कंपनी के प्रभाव क्षेत्र मेँ ला दिया।
  • लार्ड वेलेजली के कार्यकाल मेँ टीपू सुल्तान ने नेपोलियन से पत्राचार कर भारत से अंग्रेजो को निकालने की योजना बनाई थी।

लॉर्ड वेलेज़ली -(1798 ई.-1805 ई.) 

लॉर्ड वेलेज़ली लॉर्ड वेलेज़ली 1798-1805 ई. तक भारत के गवर्नर-जनरल रहे। 1798 ई. में सर जॉन शोर के अस्तक्षेपवादी युग के बाद लॉर्ड वेलेज़ली भारत के गर्वनर जनरल बने, जो अपनी ‘सहायक सन्धि’ प्रणाली के कारण प्रसिद्ध हुए। इन्होंने भारत में अंग्रेज़ साम्राज्य के विस्तार को अपना लक्ष्य बनाया। हालाँकि ‘सहायक सन्धि’ का प्रयोग भारत में वेलेज़ली से पूर्व डूप्ले द्वारा किया गया था। लॉर्ड वेलेज़ली फ़्राँसीसियों को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते थे। इन्हीं के समय में चतुर्थ मैसूर युद्ध लड़ा गया था, जिसमें टीपू सुल्तान की पराजय तथा मृत्यु हो गई थी।

सहायक सन्धि : लॉर्ड वेलेज़ली की भूमिका 

लॉर्ड वेलेज़ली भारत में ‘सहायक सन्धि’ प्रणाली के कारण भी प्रसिद्ध रहे हैं। सहायक सन्धि निम्न शर्तों पर आधारित होती थी- भारतीय राजाओं को अपना विदेशी सम्बन्ध ईस्ट इण्डिया कम्पनी के नियंत्रण में स्थापित करना होता था, और जो भी बात दूसरे राज्यों से करनी थी, कम्पनी के माध्यम से ही संभव हो सकती थी। सहायक सन्धि करने वाले बड़े राज्यों के लिए यह आवश्यक था कि, वे किसी अंग्रेज़ सैन्य अधिकारी द्वारा नियंत्रित एक सैन्य टुकड़ी को अपने राज्य में रखें, तथा बदले में ‘पूर्ण प्रभुसत्ता वाले क्षेत्र’ कम्पनी को दें। छोटे स्तर के बदले में नक़द धन दिया करते थे।

सहायक संधि करने वाले राज्य

राज्य   वर्ष
हैदराबाद सितम्बर, 1798 ई.
मैसूर      1799 ई.
तंजौर   अक्टूबर, 1799 ई.
अवध       नवम्बर, 1801 ई.
पेशवा     दिसम्बर, 1803 ई.
बरार (भोंसले)  दिसम्बर, 1803 ई.
ग्वालियर (सिंधिया)   फ़रवरी, 1804 ई.                                                                        

नोट- सहायक संधि स्वीकार करने वाले अन्य राज्य थे- जोधपुर, जयपुर, मच्छेड़ी, बूंदी तथा भरतपुर।

  1. सहायक सन्धि करने वाले प्रत्येक राज्य को अपनी राजधानी में एक अंग्रेज़ रेजीडेन्ट को रखना पड़ता था, तथा कम्पनी की पूर्व आज्ञा के बिना राजा किसी भी यूरोपीय को अपनी सेवा में नहीं ले सकता था।
  2. कम्पनी सहायक सन्धि स्वीकार करने वाले राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करते हुए राज्य की उसके हर प्रकार के शत्रुओं से रक्षा करेगी।  

कम्पनी को लाभ

सहायक सन्धि से कम्पनी को लाभ ही लाभ था, जैसे- राज्यों को आपस में लड़ाना, उन्हें सहायक सन्धि के जाल में फँसाना, अपने सैन्य व्यय में कटौती कराना, फ़्राँसीसी शक्ति को कमज़ोर करना। सहायक सन्धि देशी राज्यों के लिये हानि ही हानि थी, जैसे- सेना में भारतीय सैनिकों की बेकारी, विदेशी सम्बन्ध कम्पनी के नियन्त्रण में हो जाना, राजा का बिल्कुल निष्क्रय हो जाना एवं सहायक सन्धि से जुड़े राज्यों का दिवालिया हो जाना आदि।

टीपू सुल्तान की पराजय

लॉर्ड वेलेज़ली के समय में फ़्राँसीसियों का भय भारत में पूरी तरह फैला हुआ था। वेलेज़ली ने फ़्राँसीसियों को हराने का एकमात्र उपाय यह निकाला कि, भारत के सभी राज्य उसके अधीनस्थ हों। नेपोलियन के सहयोग से अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकाल करने की योजना बनाने वाले टीपू सुल्तान को चतुर्थ मैसूर युद्ध 1799 ई. में पराजित कर दिया गया। इस युद्ध में ‘शेर-ए-मैसूर’ टीपू सुल्तान की मृत्यु हो गई। 1799 ई. में मेहदी अली ख़ाँ नामक एक दूत को अंग्रेज़ों ने ईरान के शाह के दरबार में भेजा। इसी प्रकार 1800 ई. में एक अन्य दूत जॉन मैल्कम बहुत से बहुमूल्य उपहार लेकर तेहरान पहुँचा। इनके फलस्वरूप शाह से एक सन्धि हुई, जिसमें शाह ने फ़्राँसीसियों को अपने देश में आने की अनुमति न देने का वचन दिया। टीपू सुल्तान का सम्पर्क नेपोलियन से हो चुका था, और वह उसके सहयोग से अंग्रेज़ों को भारत से भगाना चाह रहा था।

अंग्रेज़ी राज्य की सेवा

लॉर्ड वेलेज़ली ने कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में नागरिक सेवा में भर्ती किये गये युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए ‘फ़ोर्ट विलियम कॉलेज’ की स्थापना की। उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी को व्यापारिक कम्पनी के स्थान पर एक शक्तिशाली राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित किया। लॉर्ड वेलेज़ली “बंगाल का शेर” के उपनाम से प्रसिद्ध थे। इनके समय में ही 1801 ई. में मद्रास प्रेसीडेन्सी का सृजन किया गया। नेपोलियन के विस्तार को रोकने के लिए वेलेज़ली ने भारत से जनरल वेयर्ड के नेतृत्व में एक सैनिक दस्ता मिस्र भेजा। इन्हीं के कार्यकाल में द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध (1803-1806 ई.) हुआ था।

सर जॉर्ज बार्लो 1805. – 1807.)

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  • लार्ड वेलेजली के बाद कार्नवालिस को पुनः 1805 मेँ बंगाल का गवर्नर जनरल बनाकर भेजा गया, किंतु तीन महीने बाद अक्टूबर 1805 मेँ उसकी मृत्यु हो गई।
  • कार्नवालिस की मृत्यु के बाद जॉर्ज बार्लो को बंगाल का गवर्नर जनरल बनाया गया।
  • जॉर्ज बार्लो ने लार्ड वेलेजली के विपरीत अहस्तक्षेप की नीति का समर्थन किया।
  • इसके कार्यकाल मेँ वेल्लोर मेँ 1806 में सिपाहियों ने विद्रोह किया।
  • जार्ज बार्लों ने धेलकर के साथ राजपुर घाट की संधि (1805) की।

सर जॉर्ज बार्लो -(1805 से 1807 ई.)

भारत के गवर्नर-जनरल रहे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा के लिए उनका यह कार्यकाल काफ़ी अल्प था। लॉर्ड वेलेज़ली (1798-1805 ई.) के प्रशासनकाल में पदोन्नति करके वह कौंसिल के सदस्य बन गये थे। अक्टूबर 1805 ई. में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस की मृत्यु के समय उन्हें कौंसिल का वरिष्ठ सदस्य होने के नाते कार्यकारी गवर्नर-जनरल नियुक्त कर दिया गया। गवर्नर-जनरल के इस पद पर वह 1807 ई. तक बने रहे थे। वह अपने पूर्वाधिकारी लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा अपनाई गई अहस्तक्षेप की नीति के अनुगामी बने रहे। इसके परिणाम स्वरूप उन्होंने राजपूत राजाओं और मराठों को दया पर छोड़ दिया, जिन्होंने राजपूताना पर आक्रमण कर मनमानी लूट-ख़सोट की थी। इससे अंग्रेज़ सरकार की प्रतिष्ठा बहुत गिर गई। उनके प्रशासन काल में वेल्लोर में सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया, जिसे सख़्ती से दबा दिया गया। उनकी अहस्तक्षेप की नीति से ख़र्च में कमी हुई और वार्षिक बचत होने लगी। इससे कम्पनी के डाइरेक्टर्स ख़ुश हुए, किन्तु उनकी दुर्बल नीतियों से भारत तथा इंग्लैंण्ड के अंग्रेज़ इतने नाराज़ हुए कि, गवर्नर-जनरल के पद पर उनकी नियुक्ति की पुष्टि नहीं की गई और लॉर्ड मिण्टो प्रथम को उनके स्थान पर भेज दिया गया।

लॉर्ड मिंटो (1807. से 1807 .)

  • लॉर्ड मिंटो ने रंजीत सिंह के साथ अमृतसर की संधि की।
  • लार्ड मिंटो ने मैल्कम को ईरान तथा एलफिंस्टन को काबुल भेजा।
  • इसके कार्यकाल मेँ 1813 का चार्टर अधिनियम पारित हुआ।
  • लॉर्ड मिंटो ने फ्रांसीसियों पर आक्रमण करके बोर्बन और मारिशस के द्वीपो पर कब्जा कर लिया।

लॉर्ड मिण्टो प्रथम -(1807 ई. से 1813 ई.)

 भारत का गवर्नर-जनरल रहा। वह अहस्तक्षेप नीति का समर्थक था और उसके शासनकाल में भारत किसी भी बड़े युद्ध में नहीं फँसा। उसने कई राजनीतिक सफलताएँ प्राप्त कीं। उसने 1809 ई. में शक्ति प्रदर्शनों के द्वारा पिंडारी नेता अमीर ख़ाँ को बरार में हस्तक्षेप करने से रोक दिया। उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक सलफता पंजाब के महाराज रणजीत सिंह के साथ 1809 ई. में की गई अमृतसर की सन्धि थी, जिसके फलस्व्ररूप सतलुज नदी पंजाब के सिक्ख राज्य तथा ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की सीमा मान ली गई। भारत पर फ़्राँस और रूस के सम्मिलित हमले को रोकने के लिए लॉर्ड मिण्टो ने 1808 ई. में सर जॉन माल्कम को दूत बनाकर फ़ारस भेजा और उसी साल माउण्ट स्टुअर्ट एल्फ़िन्स्टन को अफ़ग़ानिस्तान के अमीर शाहशुजा के पास भेजा। फ़्राँस और रूस के ख़तरे को दूर करने के उपायों के बारे में दोनों राज्यों से समझौता किया गया। 1810 ई. में फ़्राँस और रूस की दोस्ती टूट जाने से यह ख़तरा दूर हो गया। फ़्राँस के हमले का भय अब भी बना रहा और लॉर्ड मिण्टो प्रथम ने 1810 ई. में पश्चिम में बौर्बन तथा मॉरिशस के फ़्राँसीसी द्वीपों को तथा पूर्व में डच लोगों के द्वारा अधिकृत अम्बोमना तथा मसाले वाले द्वीपों को तथा 1811 ई. में जावा द्वीप को जीत लिया। इस प्रकार से लॉर्ड मिण्टो प्रथम ने फ़्राँस तथा पूर्वी द्वीप-समूह के उसके अधीनस्थ राज्यों के बढ़ाव पर प्रभावशाली ढंग से रोक लगा दी।

मार्क्विस हेस्टिंग्स (1813 ई. – 1823 ई.)

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  • इसके कार्यकाल मेँ आंग्ल नेपाल युद्ध (1814-1816 ई.) हुआ। इस युद्ध मेँ नेपाल को पराजित करने के बाद उसके साथ संगौली की संधि की।
  • संगौली की संधि के द्वारा काठमांडू मेँ एक ब्रिटिश रेजिडेंट रखना स्वीकार कर लिया गया। इस संधि द्वारा अंग्रेजो को शिमलाम, मसूरी, रानीखेत एवं नैनीताल प्राप्त हुए।
  • लॉर्ड हैस्टिंग्स के कार्यकाल मेँ तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध (1817-1818) हुआ। 1818 मेँ इसने पेशवा का पद समाप्त कर दिया।
  • इसने 1817-1818 में पिंडारियों का दमन किया। पिंडारियों के नेता चीतू, वासिल मोहम्मद तथा करीम खां थे।
  • लॉर्ड हेस्टिंग्स 1799 मेँ लगाए गए प्रेस प्रतिबंधोँ को हटा दिया।
  • इसके कार्यकाल मेँ 1822 मेँ बंगाल मेँ रैयत के अधिकारोँ को सुरक्षित करने के लिए बंगाल काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया।

लॉर्ड हेस्टिंग्स (1813 से 1823 ई.)

तक भारत का गवर्नर-जनरल रहा। उसने गर्वनर-जनरल के रूप में भारत में राजनीतिक श्रेष्ठता को और बढ़ाने का प्रयत्न किया। उसके समय में सर्वप्रथम ‘आंग्ल-नेपाल युद्ध’ लड़ा गया। अंग्रेज़ जनरल ‘गिलिसपाई’ ने इस युद्ध में वीरगति प्राप्त की थी। इस युद्ध के परिणामस्वरूप अल्मोड़ा पर अधिकार कर लिया गया, और गोरखाओं की पूर्ण रूप से पराजय हुई। लॉर्ड हेस्टिंग्स के काल में ही तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध लड़ा गया था, जिसमें मराठों की पराजय हुई थी। हेस्टिंग्स को पिण्डारियों का दमन करने का श्रेय भी दिया जाता है।

लॉर्ड हेस्टिंग्स और आंग्ल-नेपाल युद्ध

इस युद्ध में अंग्रेज़ों की ओर से ‘जनरल आक्टरलोनी’, ‘कर्नल निकलस’ व ‘गार्डनर’, ‘जनरल गिलिसपाई’ आदि नायक थे। जनरल गिलिसपाई का कालंग के दुर्ग पर आक्रमण विफल रहा, तथा वह स्वयं वीरगति को प्राप्त हुआ। उसके उत्तराधिकारी ‘मेजर मार्टिडल’ भी जैतक दुर्ग को जीतने में असफल रहे, किन्तु अंग्रेज़ इस विफलता से हताश नहीं हुए तथा कर्नल निकलस और गार्डनर ने कुमाऊँ की पहाड़ियों में स्थित अल्मोड़ा नगर पर विजय प्राप्त कर ली और जनरल आस्टरलोनी ने मालाओं नगर को अमर सिंह थापा से छीन लिया। इस युद्ध में गोरखाओं की पूर्ण पराजय हुई। 1816 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं गोरखों के मध्य ‘सुगौली सन्धि’ हुई, जिससे यह युद्ध समाप्त हुआ। सुगौली सन्धि की शर्तों के अनुसार गढ़वाल तथा कुमाऊँ अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गए। गोरखों ने काठमाडूं में ब्रिटिश सेना रखना स्वीकार किया। शिमला, रानीखेत, नैनीताल अंग्रेज़ों के नियन्त्रण में हो गये। प्रसंगतः ‘चार्ल्स नेपियर’ का वह कथन उल्लेखनीय है, जिसमें उसने कहा था, “यदि मैं 12 वर्ष के लिए भारत का बादशाह बन जाऊँ, तो भारत में एक भी भारतीय नरेश नहीं रहेगा, निज़ाम का नाम भी कोई नहीं सुनेगा और नेपाल हमारा होगा।” लॉर्ड हेस्टिंग्स के काल में तीसरा आंग्ल-मराठा युद्ध भी लड़ा गया, जिसमें मराठे पराजित हुए।

गोरखों की भर्ती सुगौली सन्धि की शर्तों के अनुसार गोरखाओं ने सिक्किम को ख़ाली कर दिया। इस सन्धि का सबसे बड़ा लाभ गोरखों का अंग्रेज़ी सेना में भरती होना था। 1857 ई. में भी ये राजभक्त बने रहे तथा उन्होंने अंग्रेज़ी साम्राज्य के प्रसार में योगदान दिया।

पिण्डारियों का दमन : लॉर्ड हेस्टिंग्स की भूमिका 

लॉर्ड हेस्टिंग्स को पिण्डारियों के दमन का भी श्रेय प्राप्त है। अंग्रेज़ इतिहासकार पिण्डारियों को अफ़ग़ान लुटेरा मानते थे, और दौलतराव शिन्दे को इनका एक मात्र नेता मानते थे, परन्तु इसकी सत्यता प्रमाणित नहीं होती। पिण्डारियों का पहला उल्लेख मुग़लों के महाराष्ट्र पर 1689 ई. के आक्रमण के समय मिलता है। बाजीराव प्रथम के काल से ये अवैतनिक रूप से मराठों की ओर से लड़ते थे और केवल लूट में भाग लेते थे। पिण्डारी किसी भी धर्म को न मानते हुए लूटमार में संलग्न रहने वाले व्यक्ति थे। 19वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षों में ‘वासिल मुहम्मद’, ‘चीतू’ तथा ‘करीम ख़ाँ’ इनके नेता थे। 1812 ई. में पिण्डारियों ने अंग्रेज़ों के अधिकार वाले क्षेत्र- मिर्ज़ापुर तथा ‘शाहाबाद’ पर आक्रमण कर दिया। हेस्टिंग्स ने उनके दमन को अपना लक्ष्य बनाकर उनके विरुद्ध कार्यवाही की। उसने 1,13,000 सेना तथा 300 तोपें एकत्रित कर लीं। उत्तरी सेना की कमान उसने स्वयं ली तथा दक्षिणी सेना की कमान ‘टॉमस हिसलोप’ को दे दी। उनके नेताओं में वासिल मुहम्मद ने आत्महत्या कर ली। करीम ख़ाँ को गोरखपुर में एक छोटी-सी रियासत दे दी गयी, और चीतू को जंगल में शेर मारकर खा गया। मैल्कल ने पिण्डारियों को “मराठा शिकारियों के साथ शिकारी कुत्तों” की उपमा दी। 1824 ई. तक पिंडारियों का सफाया हो चुका था।

बाजीराव द्वितीय को पेन्शन लॉर्ड हेस्टिंग्स के समय में ही मराठों के साथ अंग्रेज़ों की अन्तिम लड़ाई हुई थी, जिसमें मराठे पराजित हुए। 13 जून, 1817 ई. को पेशवा ने अपनी हार स्वीकार करके एक सन्धि पर हस्ताक्षर किया, जिसके अनुसार मराठा संघ समाप्त हो गया। 5 नवम्बर, 1817 ई. को शिन्दे से एक सन्धि की गयी, जिसके अनुसार महाराजा ने 5000 सैनिक पिण्डारियों के विरुद्ध अभियान के लिए देना स्वीकार किया। नागपुर के अप्पा साहब सीतावर्डी में तथा होल्कर महीदपुर में पराजित हुए। लॉर्ड हेस्टिंग्स ने बाजीराव द्वितीय को गद्दी से उतारकर 18 लाख रुपये वार्षिक पेन्शन देकर कानपुर के समीप बिठूर के स्थान पर भेज दिया। सतारा की गद्दी शिवाजी के वंशज प्रताप सिंह को दे दी गयी।

रैयतवाड़ी व्यवस्था और लॉर्ड हेस्टिंग्स

रैयतवाड़ी व्यवस्था हेस्टिंग्स के भारत आने के पहले तक मुग़ल सम्राट को औपचारिक रूप से सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। सम्राट कम्पनी के लिए ‘हमारा विशेष कृपापात्र भृत्य’, ‘आदरणीय पुत्र’ जैसे शब्दों को प्रयोग में लाता था। हेस्टिग्स ने दिल्ली आने पर शर्त रखी कि, वह सम्राट से तभी मिलना चाहेगा, जब ये पुराने शिष्टचार ख़त्म किये जायँ। उसकी यह इच्छा पूरी हुई। उसके प्रतिवाद का प्रभाव यह रहा कि, लॉर्ड हेस्टिंग्स का उत्तराधिकारी लॉर्ड एम्सहर्स्ट 1827 ई. में सम्राट से बराबरी के सम्मान से मिला। हेस्टिंग्स के समय में ही ‘सर टॉमस मुनरों’ 1820 ई. में मद्रास का गर्वनर बना और उसने मालाबार, कन्नड़, कोयम्बटूर, मदुरै और डिंडीगल में रैयतवाड़ी व्यवस्था को लागू किया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत कृषकों को सीधे भू-स्वामी मान लिया गया तथा बिचैलियों का अस्तित्व समाप्त हो गया।

अन्य सुधारों के अंतर्गत लॉर्ड हेस्टिंग्स के समय में ही ‘एलफिन्स्टन’ ने बम्बई में ‘महालवाड़ी’ तथा रैयतवाड़ी व्यवस्था’ के मिश्रण को लागू किया। बंगाल में रैयत के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए 1822 ई. में ‘टैनेन्सी एक्ट’ या ‘काश्तकारी अधिनियम’ लागू किया गया। इस एक्ट के अन्तर्गत यदि रैयत अपने हिस्से की निश्चित राशि किराये में देता रहता था, तो उसे विस्थापित नहीं किया जा सकता था। असामान्य परिस्थितियों के अतिरिक्त लगान में वृद्धि भी नहीं की जा सकती थी। हेस्टिंग्स ने प्रेस पर लगे प्रतिबन्ध को समाप्त कर प्रेस के मार्गदर्शन के लिए भी नियम बनाये।

लॉर्ड एमहर्स्ट (1823 . से 1828.)

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  • लॉर्ड एमहर्स्ट के कार्यकाल मेँ आंग्ल बर्मा युद्ध (1824-1826) हुआ।
  • बर्मा युद्ध मेँ सफलता के बाद इसने 1826 मेँ यांद्बू की संधि की जिसके द्वारा बर्मा ने हर्जाने के रूप मेँ ब्रिटेन को एक करोड़ रूपया दिया।
  • लॉर्ड एमहर्स्ट 1824 मेँ कोलकाता मेँ गवर्नमेंट संस्कृत कालेज की स्थापना की।
  • इसने भरतपुर के दुर्ग पर अधिकार किया तथा बैरकपुर मेँ हुए विद्रोह को दबाया।

लॉर्ड एमहर्स्ट 1823 से 1828 ई. तक गवर्नर-जनरल के पद पर रहे। इनके समय में ‘प्रथम आंग्ल-बर्मा युद्ध’ (1824-1826 ई.) लड़ा गया था। यह युद्ध मुख्य रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक स्वार्थ के कारण ही लड़ा गया था। 1825 ई. में ब्रिटिश सेना के सैनिक कमाण्डर ने बर्मा सेना को परास्त कर 1826 ई. में ‘याण्डबू की सन्धि’ की। इस सन्धि के बाद अंग्रेज़ अधिकार वाले क्षेत्र का विस्तार हो गया तथा इनके प्रभाव में भी वृद्वि हुई। 1824 ई. का बैरकपुर का सैन्य विद्रोह भी लॉर्ड एमहर्स्ट के समय में ही हुआ था। भारतीय सैनिकों की एक फ़ौजी टुकड़ी, जिसे बर्मा जाने का आदेश हुआ था, ने इस आदेश की अवहेलना इस आधार पर की, कि वे विदेश जाकर अपने धर्म एवं जाति को भ्रष्ट नहीं करेंगें। प्रसंगत है कि, तत्कालीन समाज में किसी भी व्यक्ति द्वारा समुद्र पार करना धर्म को भ्रष्ट करना माना जाता था। अंग्रेज़ अधिकारियों ने कड़ाई से इस विद्रोह को कुचला और विद्रोही फ़ौजियों को गोली से उड़ा दिया गया।

भारत के गवर्नर जनरल

लॉर्ड विलियम बैंटिक (1828 . से 1835 .)

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  • लॉर्ड विलियम बैंटिक भारत मेँ किए गए सामाजिक सुधारोँ के लिए विख्यात है।
  • लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स की इच्छाओं के अनुसार भारतीय रियासतोँ के प्रति तटस्थता की नीति अपनाई।
  • इसने ठगों के आतंक से निपटने के लिए कर्नल स्लीमैन को नियुक्त किया।
  • लॉर्ड विलियम बैंटिक के कार्यकाल मेँ 1829 मे सती प्रथा का अंत कर दिया गया।
  • लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारत मेँ कन्या शिशु वध पर प्रतिबंध लगाया।
  • बैंटिक के ही कार्यकाल मेँ देवी देवताओं को नर बलि देने की प्रथा का अंत कर दिया गया।
  • शिक्षा के क्षेत्र मेँ इसका महत्वपूर्ण योगदान था। इसके कार्यकाल मेँ अपनाई गई मैकाले की शिक्षा पद्धति ने भारत के बौद्धिक जीवन को उल्लेखनीय ढंग से प्रभावित किया।

लॉर्ड विलियम बैंटिक, जिन्हें ‘विलियम कैवेंडिश बैटिंग’ के नाम से भी जाना जाता है, को भारत का प्रथम गवर्नर-जनरल का पद सुशोभित करने का गौरव प्राप्त है। पहले वह मद्रास के गवर्नर बनकर भारत आये थे। उनका शासनकाल अधिकांशत: शांति का काल था। लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारतीय रियासतों के मामले में अहस्तक्षेप की नीति को अपनाया था। उन्होंने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से संधि की थी, जिसके द्वारा अंग्रेज़ और महाराजा रणजीत सिंह ने सिंध के मार्ग से व्यापार को बढ़ावा देना स्वीकार किया था। विलियम बैंटिक के भारतीय समाज में किए गए सुधार आज भी प्रसिद्ध हैं। सती प्रथा को समाप्त करने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। अपने शासनकाल के अंतिम समय में वह बंगाल के गवर्नर-जनरल रहे थे।

लॉर्ड विलियम बैंटिक का भारत आगमन

लॉर्ड विलियम बैंटिक पहले मद्रास के गवर्नर की हैसियत से भारत आये थे, लेकिन 1806 ई. में वेल्लोर में सिपाही विद्रोह हो जाने पर उन्हें वापस बुला लिया गया। इक्कीस वर्षों के बाद लॉर्ड एमहर्स्ट द्वारा त्यागपत्र दे देने पर उन्हें गवर्नर-जनरल नियुक्त किया गया था और उन्होंने जुलाई 1828 ई. में यह पद ग्रहण कर लिया।

बैंटिक का शासनकाल :भारत के सन्दर्भ में 

“लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारतीय सेना में प्रचलित कोड़े लगाने की प्रथा को समाप्त कर दिया। भारतीय नदियों में स्टीमर चलवाने आरम्भ किये, आगरा क्षेत्र में कृषि भूमि का बंदोबस्त कराया। भारतीयों को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की निम्न नौकरियों को छोड़कर ऊँची नौकरियों से अलग रखने की ग़लत नीति को उलट दिया और भारतीयों की सहायक जज जैसे उच्च पदों पर नियुक्तियाँ कीं। उन्होंने भारतीयों की नियुक्तियाँ अच्छे वेतन पर ‘डिप्टी मजिस्ट्रेट’ जैसे प्राशासकीय पदों पर की तथा ‘डिवीजनल कमिश्नरों (मंडल आयुक्त)’ के पदों की स्थापना की।”

विलियम बैंटिक के सात वर्ष के शासनकाल में कोई भी युद्ध नहीं हुआ और प्राय: शान्ति ही बनी रही। यद्यपि उन्होंने युद्ध के द्वारा कोई नया प्रदेश नहीं जीता, तथापि 1830 ई. में ‘कछार’ (आसाम) के उत्तराधिकारियों का आपस में कोई निर्णय न होने पर उस पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। इसी प्रकार 1834 ई. में शासकीय अयोग्यता के कारण दक्षिण का कुर्ग इलाक़ा एवं 1835 ई. में आसाम का ‘जयन्तिया’ परगना ब्रिटिश भारत में मिला लिया लिया, क्योंकि उसके शासक ने उन आदमियों को सौंपने से इन्कार कर दिया था, जो ब्रिटिश नागरिकों को उठा ले गये थे और काली देवी के आगे उनकी बलि चढ़ा दी थी।

लॉर्ड विलियम बैंटिक की नीतियाँ 

सामान्यत: लॉर्ड विलियम बैंटिक ने देशी रियासतों के मामलों में हस्तक्षेप न करने की नीति का अनुसरण किया। लेकिन 1831 ई. में मैसूर नरेश के लम्बे कुशासन के कारण उसके राज्य को ब्रिटिश प्रशासन के अंतर्गत ले लिया गया। बैंटिक भारतीय साम्राज्य के विभिन्न प्रान्तों की स्वयं जानकारी रखने के उद्देश्य से बहुत अधिक दौरे किया करते थे। 1829 ई. में वह मलय प्रायद्वीप गये और उसकी राजधानी पेनांग से सिंगापुर स्थानान्तरित कर दी। इंग्लैण्ड की सरकार के निर्देश पर उन्होंने सिंध के अमीरों से व्यावसायिक संधियाँ कीं, जिसके फलस्वरूप सिन्धु का जलमार्ग अंग्रेज़ों की जहाज़रानी के लिए खुल गया। 1831 ई. में उन्होंने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से संधि की, जिसके फलस्वरूप अंग्रेज़ों और महाराजा ने सतलुज और ऊपरी सिन्ध के मार्ग से व्यापार को प्रोत्साहित करना स्वीकार कर लिया। उनके द्वारा एक ग़लत नीति का सूत्रपात इस रूप में हो गया कि, अमीर दोस्त मुहम्मद से अफ़ग़ानिस्तान की राजगद्दी प्राप्त करने के लिए निर्वासित शाहशुजा को प्रोत्साहित किया गया। इस ग़लत नीति के फलस्वरूप 1838-1842 ई. में प्रथम अफ़ग़ान युद्ध में अंग्रेज़ों को भारी क्षति उठानी पड़ी, यद्यपि बाद में सिंध को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया गया था।

लॉर्ड विलियम बैंटिक द्वारा किये गए सामाजिक सुधार के कार्य

विलियम बैंटिक के शासन का महत्त्व उनके प्रशासकीय एवं सामाजिक सुधारों के कारण है, जिनके फलस्वरूप वह बहुत ही लोकप्रिय हुए। इनका आरम्भ सैनिक और असैनिक सेवाओं में किफ़ायतशारी बरतने से हुआ। उन्होंने राजस्व, विशेषकर अफ़ीम के एकाधिकार से होने वाली आय में भारी वृद्धि की। फलत: जिस वार्षिक बजट में घाटे होते रहते थे, उनमें बहुत बचत होने लगी। उन्होंने भारतीय सेना में प्रचलित कोड़े लगाने की प्रथा को भी समाप्त कर दिया। भारतीय नदियों में स्टीमर चलवाने आरम्भ किये, आगरा क्षेत्र में कृषि भूमि का बंदोबस्त कराया, जिससे राजस्व में वृद्धि हुई, तथा किसानों के द्वारा दी जाने वाली मालगुज़ारी का उचित निर्धारण कर उन्हें अधिकार के अभिलेख दिलवाये। बैंटिक ने लॉर्ड कार्नवालिस की भारतीयों को कम्पनी की निम्न नौकरियों को छोड़कर ऊँची नौकरियों से अलग रखने की ग़लत नीति को उलट दिया और भारतीयों की सहायक जज जैसे उच्च पदों पर नियुक्तियाँ कीं। ज़िला मजिस्ट्रेट तथा ज़िला कलेक्टर के पद को मिलाकर एक कर दिया, प्रादेशिक अदालतों को समाप्त कर दिया, भारतीयों की नियुक्तियाँ अच्छे वेतन पर डिप्टी मजिस्ट्रेट जैसे प्राशासकीय पदों पर की तथा ‘डिवीजनल कमिश्नरों (मंडल आयुक्त)’ के पदों की स्थापना की। इस प्रकार उसने भारतीय प्रशासकीय ढाँचे को उसका आधुनिक रूप प्रदान किया।

लॉर्ड विलियम बैंटिक की लोकप्रियता

लॉर्ड बैंटिक के सामाजिक सुधार भी कुछ कम महत्त्व के नहीं थे। 1829 ई. में उसने सती प्रथा को समाप्त कर दिया। कर्नल स्लीमन के सहयोग से उसने ठगी का उन्मूलन किया। उस समय ठगों का देशव्यापी गुप्त संगठन था, वे देश भर में घूता करते थे और भोले-भाले यात्रियों की रुमाल से गला घोंटकर हत्या कर दिया करते थे और उनका सारा माल लूट लेते थे। 1832 ई. में धर्म-परिवर्तन से होने वाली सभी अयोग्यताओं को समाप्त कर दिया गया। 1833 ई. में कम्पनी के अधिकार पत्र को अगले बीस वर्षों के लिए नवीन कर दिया गया। इससे कम्पनी चीन के व्यवसाय पर एकाधिकार से वंचित हो गई। अब वह मात्र प्रशासकीय संस्था रह गई। नये चार्टर एक्ट के द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। बंगाल के गवर्नर-जनरल के पद का नाम बदलकर भारत का गवर्नर-जनरल कर दिया गया। गवर्नर-जनरल की कौंसिल की सदस्य संख्या बढ़ाकर चार कर दी गई तथा यह सिद्धान्त निर्दिष्ट किया गया कि कोई भी भारतीय, मात्र अपने धर्म, जन्म अथवा रंग के कारण कम्पनी के अंतर्गत किसी पद से, यदि वह उसके लिए योग्य हो, वंचित नहीं किया जायेगा।

समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता में लॉर्ड विलियम बैंटिक की भूमिका

लॉर्ड विलियम बैंटिक ने सरकारी सेवाओं में भेद-भावपूर्ण व्यवहार को ख़त्म करने के लिए 1833 ई. के एक्ट की धारा 87 के अनुसार जाति या रंग के स्थान पर योग्यता को ही सेवा का आधार माना। विलियम बैंटिक ने समाचार-पत्रों के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाते हुए उनकी स्वतन्त्रता की वकालत की। वह इसे ‘असन्तोष से रक्षा का अभिद्वार’ मानते थे। उन्होंने मद्रास के सैनिक विद्रोह का उल्लेख करते हुए बताया कि, कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) और मद्रास दोनों जगह स्थिति एक जैसी थी, किन्तु मद्रास में विद्रोह इसलिए था, क्योंकि वहाँ समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता नहीं थी। इस प्रकार विलियम बैंटिक भारतीय समाचार-पत्रों को मुक्त करना चाहते थे। किन्तु 1835 ई.में ख़राब स्वास्थ्य के आधार पर विलियम बैंटिक द्वारा इस्तीफ़ा देने के कारण समाचार-पत्रों से प्रतिबन्ध हटा लेने का श्रेय उसके परवर्ती गवर्नर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ़ को मिला।

शैक्षिक सुधार में लॉर्ड विलियम बैंटिक की भूमिका 

शिक्षा के क्षेत्र में विलियम बैंटिक ने महत्त्वपूर्ण सुधार किये। उन्होंने शिक्षा के उद्देश्य एवं माध्यम, दोनों पर पर गहरा अध्ययन किया। शिक्षा के लिए अनुदान का प्रयोग कैसे किया जाय, यह विचारणीय विषय रहा। विवाद फँसा था कि, अनुदान का प्रयोग प्राच्य साहित्य के विकास के लिए किया जाय या फिर पाश्चात्य साहित्य के विकास के लिए। प्राच्य शिक्षा के समर्थकों का नेतृत्व ‘विल्सन’ व ‘प्रिंसेप’ ने किया तथा पाश्चात्य विद्या के समर्थकों का नेतृत्व ‘ट्रेवलियन’ ने, जिसको राजा राममोहन राय का भी समर्थन प्राप्त था। अन्ततः इस विवाद के निपटारे के लिए लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता में एक समिति बनी, जिसने पाश्चात्य विद्या के समर्थन में अपना निर्णय दिया। उसने अपने विचारों को 2 फ़रवरी, 1835 ई. के सुप्रसिद्ध स्मरण पत्र में प्रतिपादित किया। अपने प्रस्तावों में लॉर्ड मैकाले की योजना थी कि, “एक ऐसा वर्ग बनाया जाय, जो रंग तथा रक्त से तो भारतीय हो, परन्तु प्रवृति, विचार, नैतिकता तथा बुद्धि से अंग्रेज़ हो।’ मैकाले के विचार 7 मार्च, 1835 ई. को एक प्रस्ताव द्वारा अनुमोदि कर दिए गए, जिससे यह निश्चित हुआ कि, उच्च स्तरीय प्रशासन की भाषा अंग्रेज़ी होगी। 1835 ई. में ही लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कलकत्ता में ‘कलकत्ता मेडिकल कॉलेज’ की नींव रखी।

लॉर्ड विलियम बैंटिक का कम्पनी के राजस्व वृद्धि में योगदान

वित्तीय सुधारों के अन्तर्गत विलियम बैंटिक ने सैनिकों को दी जाने वाली भत्ते की राशि को कम कर दिया। अब कलकत्ता के 400 मील की परिधि में नियुक्त होने पर भत्ता आधा कर दिया गया। बंगाल में भू-राजस्व को एकत्र करने के क्षेत्र में प्रभावकारी प्रयास किये गये। ‘राबर्ट माटिन्स बर्ड’ के निरीक्षण में ‘पश्चिमोत्तर प्रांत’ में (आधुनिक उत्तर प्रदेश) ऐसी भू-कर व्यवस्था की गई, जिससे अधिक कर एकत्र होने लगा। अफीम के व्यापार को नियमित करते हुए इसे केवल बम्बई बंदरगाह से निर्यात की सुविधा दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी को निर्यात कर का भी भाग मिलने लगा, जिससे उसके राजस्व में बड़ी ज़बर्दस्त वृद्धि हुई।

लॉर्ड विलियम बैंटिक ने लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा स्थापित प्रान्तीय, अपीलीय तथा सर्किट न्यायालयों को बन्द करवाकर, इसका कार्य मजिस्ट्रेट तथा कलेक्टरों में बांट दिया। न्यायलयों की भाषा फ़ारसी के स्थान पर विकल्प के रूप में स्थानीय भाषाओं के प्रयोग की अनुमति दी गई। ऊंचे स्तर के न्यायलयों में अंग्रेज़ी का प्रयोग होता था। 1833 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा बंगाल के गवर्नर-जनरल को भारत का गवर्नर-जनरल बना दिया गया। इस प्रकार भारत का पहला गवर्नर-जनरल “लॉर्ड विलियम बैंटिक” को ही बनाया गया।

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